दादागुरु पूजा के रचयिता राम ऋद्धिसार जियागंज के थे
दादागुरुदेव की पूजा के रचयिता श्री रामलाल गणी उपनाम राम ऋद्धिसार का जन्म सम्वत 1914 मे जियागंज के एक सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता श्री गोकुल चन्द सारस्वत कठगोला मंदिर निर्माता बालूचर निवासी राय बहादुर श्री लक्ष्मी चन्द जी दूगड़ के यहाँ नौकरी करते थे एवं रंगपुर (वर्त्तमान में बंग्लादेश में) रहते थे. राम ऋद्धिसार जी ने दादागुरु देव की पूजा में लक्ष्मीपत सिंह जी के नाम का उल्लेख किया है.
लक्ष्मीपति दुगड़ की साहिब, हुंडी की भुगतान करि रे...... ध्वज पूजन कर हरष भरी रे
उनकी माता का नाम वसंती देवी था. परिस्थितिवश वे बीकानेर पहुँच गए एवं वहां पर यति धनरूप जी से सम्वत 1923 में 9 वर्ष की बाल्यावस्था में यति दीक्षा ग्रहण की। अपनी प्रतिभा, लगन एवं सुदीर्घ अभ्यास से वे जैन आगमो के विशिष्ट अभ्यासी बने। उन्होंने अनेक जैन ग्रंथों की रचना कर जैन साहित्य विशेषकर खरतर गच्छीय साहित्य को समृद्ध किया।
श्री राम ऋद्धिसार रचित वैद्य दीपक ग्रन्थ |
दादागुरुदेव की पूजा एवं आरती उनकी सर्वाधिक लोकप्रिय रचना है। यह पूजा आज सभी दादाबाड़ीयों में गाई जाती है। वे ज्योतिष एवं आयुर्वेद के भी प्रकाण्ड विद्वान थे। उनके समय में राजस्थान में दो ही नाडी वैद्य थे उनमे से एक वे थे। उन्होंने इन विषयों पर अनेक ग्रंथों की भी रचना की है। वे न सिर्फ आयुर्वेद वल्कि होमियोपैथ, यूनानी एवं ऐलोपैथ के भी जानकार थे। वैद्य दीपक नाम के अपने पुस्तक में उन्होंने इन चारों प्रकार के चिकित्सा का विवरण दिया है। इसी पुस्तक की प्रस्तावना में उन्होंने अपना जीवन परिचय भी दिया है जिससे मुझे यह पता चला की उनका जन्म जियागंज, मुर्शिदाबाद में हुआ था।
प्रकांड विद्वान रामलाल जी उपनाम रामऋद्धि सार जी के नाम से बीकानेर में एक दादाबाड़ी भी है जहाँ उनकी प्रतिमा भी स्थापित है.
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(Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry)
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अनुभवका
कृपाभिलाषी
हर्षसें कहा चढूंगा उ वालूचर आया था ह उस वणिक धूर्त्तने मु सोचा होगा स्यात् स | लाके बालूचर भेज १५ या २० वाद वतलाया मेने कहा घरकी तरफ ले चल
और आपने वडेर भयंकर रोग मिटाये सो इसधातुहीकी दवायोंसें बारा वर्षसे हम देख पूंछ एसा कहते हैं की धातू सर्वथा नहीं लेणी इहांतक रसोंका विश्वास जाता रहे हैं आपके रसोसें विगाड आजतक किसीका नहीं देखा यहभी आपके बिज्ञान अधिक देखा सो रोगी जो असाध्य होय तो उसका नहीं सुधरणा जो फरमाते हो वो सइकडों जगे हमने पतवाणा है फेर किसी वैद्योंसे हमने सुधारता देखा नही सुना है इस वैद्यविद्याकी आपके इलाजोंकी प्रसंसा हमने बहोत २ ब्राह्मपरि जेनीयों से अनेक दिसावरों के अच्छे २ पंडितोसें सुणी है हम तो आपके विद्यार्थी शिष्य हैं तारीफ लिखे जितनी लिख सकते हैं लेकिन हाथ कंगणकों बोला तेरी माकूं इह क्या हजारो वैद्य गणता में आप चंद्र है धर्मके न्याय पक्षमें आप सूर्य है जो आ समझदारने आपके मुखारविंदकी अनेक नयोंकरके युक्त वाणी और समय २के सुना है वो तो धन्यवाद दिये विगर कभी रहा नहीं और रहेगा नहीं और आपकेपा विकल था धूर्त्तने क इस वैद्य विद्याकी जिसने संथा ली है वो जगतमें अवस्य मानने और पूजा प्रतिष्ठा दरजे पहुंचा है, ओर आपका हृदय इस विद्या दानमें एसा निर्मल कल्पवृक्षकी उपम
यही
जा
हें सो अंतःकरणसे आप सिखा देते हैं कपट बिलकुल नहीं रखते ईश्वरसे हमारी प्रार्थना है आपका यह अमूल्य चिंतामणी रत्नरूप जीवितारोग्य चिरस्थाई रहे जिस विद्या भास्करके प्रकाशसें दुष्ट कुमतिरूप अंधकार आर्योंके हृदयसें निकलता किंबहुना कलम पुष्करणा मुहता पं० विष्णुदत्तशर्मा विद्यार्थी शिष्य हाल मु० लातुरक गौड पॅ० कमलनयनशमी विद्यार्थी शिष्य हाल मुकाम कुरुक्षेत्र का उ० श्रीउदयः चंदजीगणिः बीकानेर विद्यार्थी पं० श्रीजीवणमलमुनिः विद्यार्थी मु० बीकानेर श्रीज गन्नाथदाधीचमिश्र शर्मा विद्यार्थी शिष्य मु० बीकानेर से । श्रीनथमल विद्यार्थी मु० कलकत्ता पं० भेरुंलाल आसोफा विद्यार्थी शिष्य दाधीचशर्मा इत्यादि अनेक वि- द्यार्थीयोंके प्रशंसापत्र शुभं ॥
कहता है अगर तुम
मांने रहनेका पत्ता
टता करी नहीं थी उहां एक बुड्ढेभी नि यती थे ऊमर उन
मुलतान चल घरा पहुंचे वडे शांतशी पीछे व्याकरणचंद्रि डेढ वर्षके करीब विचारादि षट् प्रव
पंडित पदकी दिक्ष चंदजीमुनिः पं० जाते अपणा सर्वस लिखणे में पूठे फां
बणाणेमें अद्वितीय
उनोनैं केइयक च
(उत्तर)-अहो प्रिय पाठकगणो मेरी जन्मभूमि बंगाल देशमें मुख्य राजधानी में मुरसि- दाबाद वालूचर जीयागंज है उहां कोटंबिक द्विज सारस्वत गोकुलचंद्र मेरे पिताका नाम है. माताका नांम वसंती था जब में सात वर्षका भया तब पिताने बंगला सीखणे विठलाया लेकिन् माष्टरके भयसें फेर सीखणे नहीं गया ये बात इकवीसे सालकी है। विक्रमशताब्द उगणीसके खैल कुतुहलमें मस्त रहता मेरा पिता नोकरीवास्ते रंग पुर गया पीछेसे २२ का काल पडा मेरी मां कईया साथ असपतोंके इहां कार्य करणे मरेपर द्वेष पड ग रद्दी में रायबहादुर श्रीलक्ष्मीपतिसिंघजीकी कोठीमें रहता राजा बाबू छत्रसिंघजी के पास टीपीका खेलमें मस्त रहता उस वखत मुलतानका कोठारी मोतीलाल जो वडी कोठीके दांनशालामै गंगाकिनारे रहता था उसने मुझे रेल दिखाणेके वाहने अजीमगंज ले गया मिनें अपूर्व वस्तु देखी यह बात साल तेईसके पोषकी है मुझे कहा रेल चढेगा मेंने वडे
रमें गुणठाणसें
आजकल के मनुष
करणे लगा संगत
गसें विगडे नही
रहा
देख
का आप
नहीं
सें
पी
सी
सी
टांत
स
के
नम
ही
न
जीवनचरित्र.
हर्षसें कहा चढूंगा उस दिनोंमें मेरा पिता पांवसें किसी जखमी फोडेसे लाचार होय वालूचर आया था हलचल नहीं सकता था मेरे भाइ या बहन नहीं थी एकाएक था उस वणिक धूर्त्तने मुझसें बोला तेरे पिछाडी कोन है मैंनें माबाप बताया तब उसनें सोचा होगा स्यात् सरकारी एनसें पकडा न जाउं तब मुझे पीछा धरमगोदारेमें विठ- लाके बालूचर भेज दिया जबसें में मेरी मांसे रेल चढा ये नित हठ किया करता दिन १५ या २० वाद एक दिन सडकपर लाखकी टिप्पी खेलतेकूं पूर्वोक्त धूर्त्तनें मुझे फेर वतलाया मेने कहा रेल चढाओ उसने कहा तेरी मांसे पूछवा दे में उसका हाथ घर घरकी तरफ ले चला वो धूर्त मेरे पिताके भयसे घर के पास सडकपर खडा रहकर मेरेकूं बोला तेरी माकूं इहां बुला ला में जबरदस्ती रोकर माकूं बुला लाया मेरा बाप पीडासे विकल था धूर्त्तने कहा में नलहट्टी जाताहुं तुमारा लडका केइ दिनोसें रेल चढणेवास्ते कहता है अगर तुमारी इजाजत हो तो में परसुं पीछा आउंगा सो लेते आउंगा मेरी मांने रहनेका पत्ता उसका पूछा और आज दिनतक किसी साहूकारने उहां एसी कप- टता करी नहीं थी भवतव्यता प्रबल दुसरे दिन प्रभातमूं आंधारे रेलपर मुझें लेगया उहां एक बुढभी टिकटले आवेठै वो परम पूज्य श्रीसाधूजी महाराज धनरूपजी नांमके यती थे ऊमर उनोकी ६० की थी वस दिल्ली पहुंचे वो धूर्त्त उनोसें खरचा लेकर सुलतान चल घरा हमारे आधार उस परम पुरषका रह गया २३ के फल्गुनमें वीकानेर का पहुंचे वडे शांतशील पुरुषोत्तमनें पढाणा सरू किया आखिर हेमकोश तक पढ गया पीछे व्याकरणचंद्रिका डीड वाणेके वासिंदे ओदीच्य ब्राह्मन श्रीरामचंद्रजी षट् शास्त्रीसे डेढ वर्षके करीब पढा कुछ गुचूजी गुसांइसेंभी पढा जब बारे मासी धर्म कर्त्तव्य जीव विचारादि षट् प्रकरण सूत्र पूज्यने पढाये अनुक्रमसें अठाईसकी साल माघवदि तेरसकों पंडित पदकी दिक्षा देकर द्विजन्मा बणाया हमारे पूज्यके वडे दो शिष्य थे पं० श्रीहर्ष- चंदजीमुनिः पं० करमचंदजीमुनिः वडे शिष्य गुरु से अलग रहते थे पूज्यने मकसूदाबाद जाते अपणा सर्वस्व द्रव्य वोसिराय छोटे शिष्य के सुप्रत कर दिया था ये पढणे में लिखणेमें पूठे फांटीये बणाणे कतरणीके कांम कोरणी करणेमें पुस्तककी पटडी गत्ता चणाणेमें अद्वितीय विश्वकर्मा थे गूंथणा रंगणा सीणा और तंत्रविद्यामें वडेही प्रवीण थे है उनोनैं केइयक चमत्कारीक तंत्र भी मुझें सिखलाये थे वाद किसी कारण योगसें उनोंका ग मेरेपर द्वेष पड गया सत्य है क्रोधादिकषाय गुणस्थानक चढते उपशम श्रेणिसें इग्या- रमें गुणठाणसें मुनियोकों नीचे गिराता है अज्ञानके वस सब अकृत्यवण आता है, आजकलके मनुष्योंकी तो चकारीही क्या में संगतसे भंग पीणा और मेहका फाटका करणे लगा संगतका असर बुरा है (दुहा) सतसंगसें सुधरे नही, सो मोटा निरभाग, कूसं- से विगडे नहीं, ताका मोटा भाग -१ उनका द्वेषभी मेरे हितके वास्ते भया निर्वाहका
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जीवनचरित्र.
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कला
उस वखत श्रीपूज्यजी हंससूरजी तीसकी सालमें मुझें दफतरीका कायदा वगसा बहोत फिकर लगा इसी कारण में लिखणाभी बहोत जलदी सीखा और पुस्तकें लिखने ग्रंथोके देखणेसें में जोडन कला भाषाकी सामान्य कविताईभी करणे लगा गायन भी सीखा पां श्रीमोतीचंद्रजीमुनिः पास सुभाषित और उवाई सूत्रवृत्ति सब सूत्रोंकी माई पढी दफतर के प्रताप ओस वंशकी वंशावली चवदेसे चम्मालीस गोत्रों की इतिहास समेत जाणने में आई ये प्रताप सव गणेश्वरकी कृपाका था वाद पं० श्रीधनजी जतीके संग मुंबई के आदेश पर गया उहां प्रतिक्रमणविधि मंडल पूजादि विधि सीखणेमें आई ३२ चोमासा मुंबई चिंतामणजीके पाटिये किया उहां सोनाटोली के धूर्तोंके हाथ सो उगाये अक्षर इहांतक जम गया सो अंबालाल गुजराती जैन पांच रुपे हजार श्लोकोंक देणे लगा उहां पूनेका महाराष्ट्र पंडित पदशास्त्री से लालबाग में गीतगोविंदकाव्य श्रीकृष्ण विहारीका तथा वैद्यजीवन लोलिंबराज ये दोय काव्य पढा वखतावर जीमुनि पासपन्नवणा सूत्र पढा उहांसे तेतीसका चोमासा हैदरावादका किया बेगम बजार में उहाँ अमलीका कट्ट मिरच हींग खाणेसें उपदंश मालम पडा एक वेकूव वैद्यनें रस कपूर दिया खुराक गोचरीमें पूर्वोक्त सब खाता उसनें मना कुछ नहीं किया सब व्याधीकी जड फिरंग गंठिया सांधे पकड गये फेर जिस वैद्योंकों बुलाया वोभी पांच२ चार२ रुपे लेगये औ अशुद्ध पारा देणे लगे मसूंडे फूलतेही पारा समझ छोड देता एसे पांच च्यार शठों धोखा पाया मुझकों इस विद्या सीखणेकी वहोत खयास भई उस पीडासें मरणांत क तक पहुंचा जब फेर चोतीसके कार्त्तिक में मुंबई पहुंचा उहां लूंपक गच्छी श्रीमाणक चंदजी जतीनें मेरा सब पूर्वावस्था पूछके वमनकी गुटिका देकर क्यालोमेल अंग्रेजी र कपूर मखनमें चटाया तीसरे दिन मसूडे फूले मंजन कराया फेर मेरी भूख खुली उनों केइयक पात्र जांण सद्य जैन मंत्र चमत्कारीक तंत्रभी सिखलाया पूत्राम्नायका सद्य फ तिजयपताका यंत्रभी सिखाया केइ२ औषधी अनुभविक सिखाई फेर मिगसर शुक्लांतरे पूज्य पादके दरशणकूं बीकानेरकुं आया मेरा आणेपर पारखोके खणका पूठिया श्रीजीने मुझें सुप्रत किया इहां उत्तराध्ययन सूत्रका जयघोष विजयघोष ब्राह्मणोंकै अध्ययनका व्याख्यान किया महाबल मलया सुंदरीकी चतुष्पदी वांची पैतीसकी सालका आदेश श्रीजीके हुक्मसें अमरावतीका चातुर्मास किया इहां रूपचंद वालापुरके श्रावकसें जुलाब मलम केइयक अजमायस चुटकले सीखा ये श्रावक फूलचंदजी लोंका गच्छके जती सीखाथा सोमलकी क्रिया वहोतही सद्यफलदभी मुझें सिखलाई इहां अंबादेवीके मंदिर पास एक दिगंबर अग्रवाल और एक परवाल वणियेकी संगतसें में कुछ २ दिगांबर जैनों के वातोसेंभी वाकच भया कर्मयोगसें नायका भेद ग्रंथ सीखणेकी चटपटी एक
मौलवी मुसलमांनसे मुझे लगी इहां इस कहणा वटकी भी परीक्षा होगई (दुहा) वो खावे।
खणे लगा सा बहोत
यन कला
सूत्रोंकी इतिहास
जीवनचरित्र.
११
अरुवोडसें, उनका जहरी अंग, इन तीनोंसें वचता रहणा, भोजक भूत भुजंग १ और सेवडेकी जातकूं सिलाम सात कीजीयें इसकी परीक्षा कुछ तौ पहली हैदरावादमें कीथी इहां दृढ विश्वास पाया इहांसें नागपुर गया इहां राजवैद्यके घराणादार केशवचंदजी पंडित जती वडे उदार और दयाल थे हमारी हिफाजत बहोत करी उहां भाव हर्ष गच्छके श्रीपूज्यजी चंद्रसूरजीके संग वडे विद्वान सभा चतुर सुभाषित भंडार श्रीजुहार- मलजी पंडितवरनें मुझें जंबूद्वीप पन्नत्ती सूत्र तथा चार प्रकरण जीव बिचार नवतत्व दंडक संग्रहणी ये सबोंका अर्थ दोय महीने में खूवही सिखा दिया औरभी जैनधर्मकी रुख उहां खरतरगच्छी रायचंदजी जती एक राजवैद्य एक महाराष्ट्र ब्राह्मण एक श्लोकोंका हकीम मुसलमीनभी नांमी था उनोंकीभी संगत कभी २ होती उहांसे पीछा अमरावती
नतीके संग
ई ३२का
श्रीकृष्ण
पन्नवणा
नमलीका
खुराक
फिरंगकी ये और शठों से
त कष्ट
नाणक जी रस उनोंनें
आया वरोडे गया चंद्रकी चोपइ वांची फेर वेद मुंहता पदमसी नेणसीके मुनीम पूनम- चंदजीनें तीन चिठी मुझकूं हेदराबाद कोठी में बुलाणेकुं दी उहांसे अंतरीकजी पार्श्वना- जीकी यात्रा कर ब्राणपुरके १८ मंदिरोके दरशण कर हैदरावाद गया उहां मैंनें व्याख्यान सरू कीया निहालचंद पूनमचंदजी गोलछावडा गुणका रागी और उक्त मूनीमजी दोनोंनें बडे अनुरागसें मेरा इल्म वधाणेकूं किसन गढके पारखके मुनीम लोढा जालमचंदजीकों व्याख्यान सुणने बुलाया मेरे विद्यावृद्धिका वखत आया ये श्रावक कूंणीयागजमलजी के पासही छोटेसे बडा अजमेरमें भया था इसने मुझें अनेक जैन शास्त्रोंके रहस्य और वागभट्टादि शास्त्रोंके वैद्यक रहस्य प्रतिवादियोंके कुतर्कका खंडन हकीमी यूनानी नुसके सरवत मुरब्बा चटनी घी तेल प्रमुख बणानेकी क्रिया मुख जवा- नीसें बताते रहा उस वखत माहाराष्ट्री भाषा संयुक्त तीन भाग निघंट रत्नाकर च्यार लाख श्लोकोंकी एक संहिता मेंनें पाई जिसमें वैद्य वैद्याके चीरणा और गोली शस्त्र निकालणे शस्त्रविद्या टाल और संपूर्ण सातोंइ अंगतीनोंइ चिकित्साथी संस्कृतका बोध था जाल- मचंदजीकी शिक्षासें इस सातोंइ अंगके अर्थसें सामान्य तौर वाकव हुवा नायका भेद ज्ञातयोवना अज्ञात योवनादि भेदभेदांतर कुछ२ समझणे लगा कविताई वढी तत्वोंका कुछ२ वाकबकार भया पैतालीस आगमकी पूजा तीसकी सालमें वीकानेर में बणाई थी देश इहांपर वीस विहरमानजीकी वणाइ स्तवन छंद लावण्यां वगेरे तो हजोरोंही वणाये लाब लेकिन कंठाग्र पाठ ज्यादा श्लोक नहीं थे इधर परम गुरु तीसें नेरमें स्वर्ग पधारे वडा अपसोस उनोके उपगारका आया मेने उनोंकी चाकरी नही दिनके अणसणसें वीका- वजाई खैर उहां एक पूनमचंद भोजक वडा चमत्कारी तांत्रिक दैवी उपासी था उसकूं मेंने वीस चमत्कार सद्यतांत्रिक दिखलाये इस सीखणेके वदले उसनें दोयसे अजवी तंत्र मुझकों हस्तामल कराया जबसें मासिक दश रुपया उसकूं में देणे लगा वो बडा सरल स्वभावी और कुंवारा था उहांसें मेनें गुलवरगे चोमासा किया उहां मंत्रादि चमत्कारोंसें
फल कांत में
जीनें
नका
दिर
बर
एक
वे